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चतुर्थी की महिमा एवं गणेश पूजन का फल ।।



चतुर्थी की महिमा एवं गणेश पूजन का फल ।। Chaturthi Ko Ganesh Pujan Ka Mahatva.

हैल्लो फ्रेण्ड्सzzz,

मित्रों, शिवपुराण में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति श्रीगणेशजी के अवतरण की तिथि बताया गया है । साथ ही गणेश पुराण के अनुसार भी गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को ही हुआ था । गण + पति = गणपति। गण अर्थात शिव अनुचर पति अर्थात स्वामी तो गणपति अर्थात गणों के स्वामी ।।


शिवपुराणके अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया । शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया । इस पर शिवगणों ने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका ।।


मित्रों, अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया । इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली । भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया । शिवजी के निर्देश पर भगवान विष्णु उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आये ।।


मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया । माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया । ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया ।।


मित्रों, भगवान शिव ने भी बालक गणेश को वरदान दिया और कहा कि हे गिरिजानन्दन ! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा । तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष होगा । हे गणेश्वर ! तू भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है ।।


इसलिये इस तिथि में जो कोई व्रत करेगा उसके सभी विघ्नों का नाश हो जायेगा और उसे सभी सिद्धियों की प्राप्ति होगी । शुक्लपक्ष की चतुर्थी को हे गणेश तुम्हारी पूजा करके ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाकर तदुपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे । उसकी सभी मनोकामनायें सहज ही पूर्ण हो जायेंगी, वैसे वर्षपर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की भी सभी मनोकामना पूर्ण होगी ।।


मित्रों, एक बार की बात है, कि एक भाद्रपद मास के चतुर्थी तिथि को उत्सव के बाद गणेश प्रतिमा विसर्जन के लिए ले जाते हुये महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गये । वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की ।।


तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा ? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा ! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है । अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता और कौन हारा ?


मित्रों, खेल आरंभ हुआ ! दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं । जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय पूछा गया तो उस बालक ने महादेवजी को विजयी बताया । परिणामतः माता पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया ।।


बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है । मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया है । मुझे क्षमा करें तथा इस शाप से मुक्ति का उपाय बतायें । तब ममतामयी माता को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी । उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे । इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गयीं ।।


मित्रों, एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आयीं । नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बतायी । तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया । तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ, जो चाहो वरदान माँगो । बालक बोला- भगवन ! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जायें ।।


गणेशजी 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गए । बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया । शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा । तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी । उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं । तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई ।।


मित्रों, माताजी शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची । वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन ! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी चली आयी । शिवजी ने गणेश व्रत का इतिहास उनसे बता दिया ।।


इस चमत्कार को सुनकर पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया । 21वें दिन कार्तिकेयजी स्वयं ही माता पार्वतीजी से मिलने आ गये । उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर इस व्रत को किया ।।


मित्रों, कार्तिकेयजी ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया । विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म-मरण से मुक्त होकर ब्रह्म-ऋषि होने का वर माँगा । गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की । ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सबकी मनोकामनायें पूर्ण करते हैं ।।


एक तीसरी कथा के अनुसार एक बार महादेवजी स्नान करने के लिए भोगावती गये । उनके जाने के पश्चात पार्वती ने अपने तन के मैल से एक पुतला बनाया और उसका नाम गणेश रखा । पार्वती ने उससे कहा- हे पुत्र ! तुम एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाओ । मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ । जब तक मैं स्नान न कर लूं, तब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर मत आने देना ।।


भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेशजी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया । इसे शिवजी ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर उनका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए । पार्वती ने उन्हें नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण महादेवजी नाराज हैं । इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया ।।


तब दूसरा थाल देखकर तनिक आश्चर्यचकित होकर शिवजी ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए है ? पार्वती जी बोलीं- पुत्र गणेश के लिए है, जो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है । यह सुनकर शिवजी और अधिक आश्चर्यचकित हुए । तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा है ? हाँ नाथ ! क्या आपने उसे देखा नहीं ? देखा तो था, किन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उद्दण्ड बालक समझकर उसका सिर काट दिया ।।


मित्रों, यह सुनकर माता पार्वती बहुत दुःखी हुयीं । वे विलाप करने लगीं तब पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया । पार्वती जी इस प्रकार पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उन्होंने पति तथा पुत्र को प्रीतिपूर्वक भोजन कराने के बाद स्वयं भी भोजन किया ।।


यह घटना भी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को ही हुई थी । इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है ।।





भगवान गणेश के जन्म दिन के उत्सव को गणेश चतुर्थी के रूप में जाना जाता है । गणेश चतुर्थी के दिन, भगवान गणेश को बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य के देवता के रूप में पूजा जाता है । यह मान्यता है कि भाद्रपद माह में शुक्ल पक्ष के दौरान भगवान गणेश का जन्म हुआ था ।।


गणेशोत्सव अर्थात गणेश चतुर्थी का उत्सव, १० दिन के बाद, अनन्त चतुर्दशी के दिन समाप्त होता है और यह दिन गणेश विसर्जन के नाम से जाना जाता है । अनन्त चतुर्दशी के दिन श्रद्धालु-जन बड़े ही धूम-धाम के साथ सड़क पर जुलूस निकालते हुए भगवान गणेश की प्रतिमा का सरोवर, झील, नदी इत्यादि में विसर्जन किया जाता है ।।


ऐसा माना जाता है कि भगवान गणेश का जन्म मध्याह्न काल के दौरान हुआ था इसीलिए मध्याह्न के समय को गणेश पूजा के लिये ज्यादा उपयुक्त बताया गया है । हिन्दु पञ्चांग के अनुसार सूर्योदय और सूर्यास्त के मध्य के समय को मध्यान्ह काल में किया जाता है । गणेश चतुर्थी के दिन गणेश स्थापना और गणेश पूजा मध्यान्ह के दौरान की जानी चाहिये ।।


वैदिक ज्योतिष के अनुसार मध्यान्ह के समय को गणेश पूजा के लिये सबसे उपयुक्त समय माना जाता है । मध्यान्ह काल के मुहूर्त में भक्त-लोग पूरे विधि-विधान से गणेश पूजा करते हैं । षोडशोपचार से गणपति की पूजा किया जाना सर्वश्रेष्ठ माना जाता है ।।


गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्र-दर्शन वर्जित माना जाता है । ऐसा माना जाता है कि इस दिन चन्द्र के दर्शन करने से मिथ्या दोष अथवा कलंक लग जाता है । चन्द्रमा को देखने से दर्शन करने वाले को चोरी का झूठा आरोप सहना पड़ता है । पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगवान कृष्ण पर स्यमन्तक नाम की कीमती मणि को चोरी करने का झूठा आरोप लगा था ।।


झूठे आरोप में लिप्त भगवान कृष्ण की स्थिति देख कर नारद ऋषि ने उन्हें बताया कि भगवान कृष्ण ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन चन्द्रमा को देखा था जिसकी वजह से उन्हें मिथ्या दोष लगा था । नारद ऋषि ने भगवान कृष्ण को आगे बतलाते हुए कहा था, कि भगवान गणेश ने चन्द्र देव को श्राप दिया था । इसलिये जो व्यक्ति भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दौरान चन्द्र के दर्शन करेगा वह मिथ्या दोष से अभिशापित हो जायेगा ।।


उसे समाज में चोरी के झूठे आरोप से कलंकित होना पड़ेगा । नारद ऋषि के परामर्श पर भगवान कृष्ण ने मिथ्या दोष से मुक्ति के लिये गणेश चतुर्थी के व्रत को किया और मिथ्या दोष से मुक्त हो गये । चतुर्थी तिथि के प्रारम्भ और अन्त समय के आधार पर चन्द्र-दर्शन लगातार दो दिनों के लिये वर्जित हो सकता है ।।



सम्पूर्ण चतुर्थी तिथि के दौरान चन्द्र दर्शन निषेध होता है । अगर भूल से गणेश चतुर्थी के दिन चन्द्रमा के दर्शन हो जायें तो मिथ्या दोष से बचाव के लिये इस मन्त्र का जप करना चाहिये - सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥


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।।। नारायण नारायण ।।।

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