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पवित्री धारणम् - संध्या वन्दनम् ।। Pavitri Dharanam. Pooja-Vidhi.

मित्रों, आज पवित्री धारण करने का विधान बताता हूँ ।।


पवित्री धारणम् - संध्या वन्दन ।।

स्नान, संध्योपासन, पूजन, जप, होम, वेदाध्ययन और पितृकर्म में पवित्री धारण करना आवश्यक है । यह कुशासे बनायी जाती है अथवा सोने या किसी धातु की अँगूठी भी पवित्री के काम में आ जाती है । इसकी महत्ता कुश की पवित्री से अधिक है ।।




पवित्री पहनकर आचमन करने मात्र से कुश जूठा नही होता । अतः आचमनके पश्चात इसका त्याग भी नही होता । हाँ, पवित्री पहनकर यदि भोजन कर लिया जाय, तो वह जूठी अवश्य हो जाती है और उसका त्याग अपेक्षित है । दो कुशों से बनायी हुई पवित्री हाथ की अनामिका के मूल भाग में तथा तीन कुशों से बनायी गयी पवित्री बायी अनामिका के मूल में धारण करें ।।

'ॐ भुर्भुवः स्वः' इस मन्त्र को पढ़कर कुशा की पवित्री धारण करे । दोनो पवित्रियाँ देवकर्म, ऋषिकर्म तथा पितृकर्म में उपयोगी है ।।

इन दोनो पवित्रियों को प्रतिदिन बदलना आवश्यक नही है । स्नान, संध्योपासनादि के पश्चात यदि इन्हे पवित्र स्थान मे रख दिया जाय तो दुसरे कामों मे बार-बार धारण किया जा सकता है । जूठी हो या श्राद्ध किया जाय, तब इन्हे त्याग देना चाहिये । और जब भी इसका त्याग करें उस समय इनकी गाँठोका खोलना आवश्यक हो जाता है ।।

यज्ञोपवीत की भाँति इन्हे भी शुद्ध स्थान में छोडना चाहिये । जल में छोड़ दे या शुद्ध भूमि को खोदकर 'ॐ' कहकर मिट्टि से दबा दे ।।

पवित्री के अतिरिक्त अन्य कुशाओं का जो किसी कर्म मे आ चुके है, अन्य कर्मों मे प्रयोग निषिद्ध है । इसलिये प्रतिदिन नया-नया कुश उखाड़कर उनका उपयोग करे । यदि ऐसा सम्भव न हो तो अमावास्या को कुशोत्पाटन करे । अमावास्या का उखाड़ा गया कुश एक मास तक चलता है । यदि भाद्रमास की अमावास्या को कुश उखाड़ा जाय तो वह एक वर्ष तक चलता है ।।

(क) कुशोत्पाटन विधि -

स्नानके बाद सफेद वस्त्र पहनकर प्रातःकाल कुश को उखाड़ना चाहिये । उखाड़ते समय मुँह उत्तर की ओर या पूरब की ओर रहे । पहले 'ॐ' कहकर कुश का स्पर्श करे और फिर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करें:-

विरञ्चिना सहूत्पन्न परमेष्ठिनिसर्जन ।नुद सर्वाणि पापानि दर्भ ! स्वस्तिकरो भव ॥

कुश को एक ही झटके से उखाड़ना होता है । अतः पहले खन्ती या खुरपी आदिसे उसकी जड़ को ढीला कर ले, फिर पितृतीर्थ से 'हुँ फट्' कहकर उखाड़ ले ।।

(ख) ग्रहण करने योग्य कुश -

जिसका अग्रभाग कटा-फटा न हो, जो जला न हो, जो मार्ग में या गंदी जगह पर न हो और गर्भित न हो, वह कुश ग्रहण करने योग्य है ।।



हाथो में तीर्थ:-

शास्त्रों मे दोनो हाथोमें कुछ देवादितीर्थों के स्थान बताये गये है । चारो अँगुलियोके अग्रभागमें देवतीर्थ, तर्जनी अँगुली के मूलभाग मे 'पितृतीर्थ' कनिष्ठिका के मूलभाग में 'प्रजापति तीर्थ' और अँगूठे के मूलभाग में 'ब्रह्मतीर्थ' माना जाता है ।।



इसी तरह दाहिने हाथ के बीच मे 'अग्नितीर्थ' और बाये हाथ के बीच मे 'सोमतीर्थ' एवं अँगुलियों के सभी पोरों और संधियों मे 'ऋषितीर्थ' है । देवताओं को तर्पण में जलाञ्जलि 'देवतीर्थ' से, ऋषियों को प्रजापति (काय) तीर्थ से और पितरों को 'पितृतीर्थ' से देने का विधान है ।।



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।।। नारायण नारायण ।।।

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