गृहस्थों के लिए निर्धारित शास्त्रागत नित्यकर्म ।।
मित्रों, आज मैं आपलोगों को गृहस्थों के लिए नित्यकर्म का फल कथन जो सभी के लिए शास्त्रों में वर्णित है, बताता हूँ ।।
अथोच्यते गृहस्थस्य नित्यकर्म यथाविधि ।
यत्कृत्वानृण्यमाप्नोति दैवात् पैत्र्याच्या मानुषात् ।।
अर्थ:- शास्त्रविधि के अनुसार गृहस्थ के कर्म का निरूपण करते हैं । जिसे करके मनुष्य देव-सम्बन्धी, पितृ-सम्बन्धी और मनुष्य-सम्बन्धी तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है ।।
‘‘जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते’’ । (तै.सं. ६ | ३ | १० | ५) के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन ऋणों वाला हो जाता है । उसे मुक्त होने के लिए हमारे शास्त्रों ने नित्यकर्म का विधान किया है ।।
नित्यकर्म में शारीरिक शुद्धि, संध्यावंदन, तर्पण और देव पूजन प्रभृति शास्त्र निर्दिष्ट कर्म आते हैं । इसमें मुख्य रूप से छः कर्म निम्नांकित हैं, जो आते हैं ।।
संध्या स्नानं जपस्चैव देवतानां च पूजनम् ।
वैश्वदेवं तथा$तिथ्यं षट कर्माणि दिने-दिने ।। (बृहत् प.स्मृ.१/३९)
अर्थ:- मनुष्य को स्नान, संध्या, जप, देवपूजन, बलिबैश्वदेव और अतिथि-सत्कार – ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिए ।।
(स्नान – यहाँ स्नान शब्द स्नान के पूर्व के सभी कृत्यों के लिए उपलक्षक-रूप में निर्दिष्ट है । पाठक्रमादर्थक्रमों बलियान् के आधार पर प्रथम स्नान के पश्चात् संध्या समझनी चाहिए ।।)
(नित्यकर्म पुजप्रकाश)
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वास्तु विजिटिंग के लिये तथा अपनी कुण्डली दिखाकर उचित सलाह लेने एवं अपनी कुण्डली बनवाने अथवा किसी विशिष्ट मनोकामना की पूर्ति के लिए संपर्क करें ।।
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किसी भी तरह के पूजा-पाठ, विधी-विधान, ग्रह दोष शान्ति आदि के लिए तथा बड़े से बड़े अनुष्ठान हेतु योग्य एवं विद्वान् ब्राह्मण हमारे यहाँ उपलब्ध हैं ।।
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संपर्क करें:- बालाजी ज्योतिष केन्द्र, गायत्री मंदिर के बाजु में, मेन रोड़, मन्दिर फलिया, आमली, सिलवासा ।।
WhatsAap & Call: +91 - 8690 522 111.
E-Mail :: astroclassess@gmail.com
Website :: www.astroclasses.com
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।।। नारायण नारायण ।।।
मित्रों, आज मैं आपलोगों को गृहस्थों के लिए नित्यकर्म का फल कथन जो सभी के लिए शास्त्रों में वर्णित है, बताता हूँ ।।
अथोच्यते गृहस्थस्य नित्यकर्म यथाविधि ।
यत्कृत्वानृण्यमाप्नोति दैवात् पैत्र्याच्या मानुषात् ।।
अर्थ:- शास्त्रविधि के अनुसार गृहस्थ के कर्म का निरूपण करते हैं । जिसे करके मनुष्य देव-सम्बन्धी, पितृ-सम्बन्धी और मनुष्य-सम्बन्धी तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है ।।
‘‘जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते’’ । (तै.सं. ६ | ३ | १० | ५) के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन ऋणों वाला हो जाता है । उसे मुक्त होने के लिए हमारे शास्त्रों ने नित्यकर्म का विधान किया है ।।
नित्यकर्म में शारीरिक शुद्धि, संध्यावंदन, तर्पण और देव पूजन प्रभृति शास्त्र निर्दिष्ट कर्म आते हैं । इसमें मुख्य रूप से छः कर्म निम्नांकित हैं, जो आते हैं ।।
संध्या स्नानं जपस्चैव देवतानां च पूजनम् ।
वैश्वदेवं तथा$तिथ्यं षट कर्माणि दिने-दिने ।। (बृहत् प.स्मृ.१/३९)
अर्थ:- मनुष्य को स्नान, संध्या, जप, देवपूजन, बलिबैश्वदेव और अतिथि-सत्कार – ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिए ।।
(स्नान – यहाँ स्नान शब्द स्नान के पूर्व के सभी कृत्यों के लिए उपलक्षक-रूप में निर्दिष्ट है । पाठक्रमादर्थक्रमों बलियान् के आधार पर प्रथम स्नान के पश्चात् संध्या समझनी चाहिए ।।)
(नित्यकर्म पुजप्रकाश)
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।।। नारायण नारायण ।।।
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