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कोई भी शुभ या अशुभ घटना अनुकूल या प्रतिकूल गोचर ग्रह स्थिति पर ही अवलम्बित होती है ।। Good or bad event is only possible planetary transit.

कोई भी शुभ या अशुभ घटना अनुकूल या प्रतिकूल गोचर ग्रह स्थिति पर ही अवलम्बित होती है । जिस दिन शुभाशुभ घटना घटती है उस दिन की गोचर ग्रह स्थिति शुभ या अशुभ होती है एवं दशा-अन्तरदशा एवं प्रत्यन्तरदशा भी शुभ या अशुभ होती है ।। Astro Classes, Silvassa.

मित्रों, सभी ग्रह अपने-अपने मार्ग पर अपनी-अपनी गति से सदैव सूर्य के चारों ओर घूमते रहते हैं । इससे ग्रह एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हुए सूर्य की परिक्रमा पूरी करते हैं । जब जातक का जन्म होता है उस समय ग्रह जिस-जिस राशि का भ्रमण कर रहे होते हैं उसी राशी पर कुण्डली में वो ग्रह बैठे देखे जाते हैं ।।

जन्म समय के बाद ग्रह जिस-जिस राशि में भ्रमण करते रहते हैं वह स्थिति गोचर कहलाती है । गो शब्द संस्कृत भाषा की ''गम्‌'' धातु से बना है । गम्‌ का अर्थ है ''चलने वाला'' आकाश में अनेक तारे है, वे सब स्थिर हैं । तारों से ग्रहों को पृथक दिखलाने के कारण ग्रहों का ''गो'' नाम रखा गया है । चर का अर्थ है ''चलना'' अर्थात्‌ अस्थिर बदलने वाला इसलिये गोचर का अर्थ हुआ ग्रहों का चलन अर्थात ग्रहों का परिवर्तित प्रभाव ।।

मित्रों, जन्म कुण्डली में इन्हीं ग्रहों का प्रभाव स्थिर होता है जबकि गोचर में इन्हीं ग्रहों का उस समय से परिवर्तित बदला हुआ प्रभाव दिखलाई पड़ता है । ज्योतिष शास्त्र में तीन तरह के लग्न प्रचलित हैं - जन्म लग्न, चन्द्र लग्न व सूर्य लग्न ।।

यह परिवर्तित प्रभाव हमें कहां से देखना चाहिये जन्म लग्न से या चन्द्र लग्न से अथवा सूर्य लग्न से ? प्रत्‍येक लग्न का अपना-अपना महत्व होता है - लग्न शरीर का, चन्द्र मन का और सूर्य आत्मा का प्रतिनिधि ग्रह माना गया है । जातक का जीवन इन तीनों के समन्वय से बनता है । आत्मा शरीर के बिना अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती । शरीर का नियन्त्रण मन के हाथ में है मन ही शरीर की ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण करता है । इसलिये चन्द्र लग्न का भी महत्व मानव जीवन में बढ़ जाता है ।।

फलदीपिका में भी चन्द्र लग्न से गोचर का विचार करने का निर्देश दिया है । सब प्रकार के लग्नों (लग्न, सूर्य लग्न एवं चन्द्र लग्न) के होते हुए भी गोचर विचार में प्रधानता चन्द्र लग्न की ही मानी गयी है । बृहतपाराशर होरा शास्त्र में भी चन्द्र लग्न व जन्म लग्न दोनों को ही महत्‍वपूर्ण बतलाया गया है और दोनों लग्नों से फलादेश करने का आदेश दिया गया है । माना जाता है कि चन्द्रमा जन्म लग्न में उसी भाव में गोचर करता है जिस भाव में वह गर्भाधान के समय होता है, अतः महत्व चन्द्र का भी है ।।

मित्रों, दशा एवं अन्तर दशा के समय, दशा नाथ जिस राशि में बैठा होता है उसको लग्न मान कर दशा के शुभाशुभ का विचार किया जाता है । गोचर अष्टक वर्ग पद्धति का एक अंग है । अष्टक वर्ग लग्न व सात ग्रहों को मिला कर बनता है । अष्टक वर्ग में देखा जाता है कि ग्रह कहां-कहां शुभाशुभ फल दे सकते हैं । यहां पर शुभ व अशुभ फल ग्रहों की परस्पर स्थिति, मैत्री व नैसर्गिक शुभता व अशुभता को ध्यान में रखकर किया जाता है । चन्द्रमा से कौन ग्रह शुभ है और कौन ग्रह अशुभ है, यह भी देखा जाता है । इसलिए महर्षियों ने गोचर फल निर्णय के लिये चन्द्र को चुना जो ग्रह होने के साथ-साथ एक लग्न भी है और लग्न पर भी नियन्त्रण रखता है ।।

दशा का क्रम भी चन्द्रमा के नक्षत्र के स्वामी से ही आरम्भ होता है अर्थात्‌ जीवन का आरम्भ भी चन्द्रमा से ही होता है । चन्द्रमा ही जातक के शैशवकाल का कारक ग्रह माना जाता है । इसलिये बालारिष्ट में चन्द्रमा की कुण्डली में स्थिति भी अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी गयी है । चन्द्रमा से ही गण्डान्त आदि देखा जाता है, चन्द्रमा से ही तिथि का महत्व है । बल्कि ये कहें कि तिथि चन्द्रमा से बनती है, दिन का नक्षत्र भी चन्द्रमा से ही देखा जाता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जिस नक्षत्र में चन्द्रमा होता है वही नक्षत्र दिन का भी होता है । इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक ज्योतिष में चन्द्रमा का बहुत बड़ा महत्व होता है ।।

तिथि, नक्षत्र मुहूर्त्त, दशा आदि सब कार्य कलाप चन्द्रमा से ही देखे जाते हैं । इसलिये गोचर में भी चन्द्रमा का महत्व बढ़ जाता है । इसलिए महर्षियों ने गोचर का विचार चन्द्रमा से देखने का आदेश दिया है । लेकिन क्या केवल गोचर से ही फलित कहा जा सकता है ? गोचर फलित का एक प्रभावशाली अंग होते हुए भी यह सब कुछ नहीं । हमारे महर्षियों ने यह स्पष्ट कहा है कि जो कुछ कुण्डली में नहीं वह गोचर नहीं दे सकता । गोचर में ग्रह चाहे कितना ही अच्छा योग बनाते हो यदि वह योग कुण्डली में नहीं तो वह गोचर नहीं दे सकता ।।

उदाहरण के लिए देखें तो गोचर तो दशा व अन्तर दशा के अधीन भी कार्य करता है । यदि दशा व अन्तर दशा ऐसे ग्रहों की चल रही हो जो जातक के लिये अशुभ हो परन्तु गोचर शुभ हो तो गोचर का शुभ फल जातक को नहीं मिलता । क्योंकि गोचर में यह देखा जाता है कि जन्म कुण्डली की ग्रह स्थिति से वर्तमान गोचर कुण्डली में ग्रह स्थिति अच्छी या बुरी कैसी स्थिति में है । जो ग्रह जन्म कुण्डली में उत्तम स्थान में पड़ा हो वह गोचर में शुभ स्थान पर आते ही शुभ फल देगा ।।

परन्तु जो ग्रह जन्म कुण्डली में अशुभ हो वह यदि गोचर में शुभ भी होगा तो भी शुभ फल नहीं देगा । गोचर ग्रह जन्म के ग्रहों से जिस समय अंशात्मक या आसन्न योग करते हैं उस समय ही उनका ठीक फल प्रकट होता है । मान लो शुक्र वृष में 18 अंश पर है । गोचर में शुक्र जब वृष 18 अंश से योग बनायेगा तब ही शुक्र का अच्छा या बुरा फल प्रकट होगा । इस प्रकार गोचर ग्रह जन्म के ग्रह के अधीन हुआ । यदि गोचर का ग्रह अशुभ भाव में हो जन्म कुण्डली में वह ग्रह उच्च, स्वक्षेत्री हो तो गोचर में वह ग्रह अशुभ फल नहीं देता ।।

वस्‍तुत: गोचर के नियमों के आधार पर हम कह सकते हैं कि गोचर का फल जन्म कुण्डली के ग्रह स्थिति पर निर्भर करता है । यदि गोचर के अन्य नियमों का अध्ययन करे तो हम पायेंगे कि गोचर दशा व अन्तर दशा के भी अधीन है । मूलतः गोचर विचार जन्मकुडली और गोचर कुण्डली दोनों पर निर्भर है। गोचर विचार करते समय ग्रहों की स्थिति का विचार सूर्य, चन्द्र एवं लग्न से करना चाहिए । यदि इनमें से जो सर्वाधिक बली हो तो उससे करना चाहिए । तीनों से ग्रहस्थिति का विचार करके व दशादि विचार कर समन्वय युक्त फल कहना चाहिए ।।

महादशा, अन्तरदशा एवं प्रत्यन्तरदशा से यह संकेत मिल जाता है कि अमुक घटना इस अवधि में घटेगी । लेकिन यह अवधि महीनों से लेकर कई वर्षों की अवधि है । लेकिन घटना का सही समय निर्धारित करने के लिए गोचर-ज्योतिष का सहारा लेना ही पड़ता है । किसी भी जातक के जीवन में जब कोई शुभ या अशुभ घटना घट रही होती है तो उस समय जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति से गोचर ग्रह स्थिति का निकटस्थ सम्बन्ध होता है ।।

वस्तुतः स्पष्ट है कि कोई भी शुभ या अशुभ घटना अनुकूल या प्रतिकूल गोचर ग्रह स्थिति पर ही अवलम्बित होती है । जिस दिन शुभाशुभ घटना घटती है उस दिन की गोचर ग्रह स्थिति शुभ या अशुभ होती है एवं दशा-अन्तरदशा एवं प्रत्यन्तरदशा भी शुभ या अशुभ होती है । निष्‍कर्षत: गोचर विचार बिना ज्‍योतिष में फलित सम्‍भव नहीं है ।।

ग्रहों का गोचर अथवा भ्रमण काल :- 

सूर्य, शुक्र, बुध का भ्रमण काल 1 माह होता है ।।
चंद्र का भ्रमण काल सवा दो दिन होता है ।।
मंगल का भ्रमण काल 57 दिन होता है ।।
गुरु का भ्रमण काल 1 वर्ष होता है ।।
राहु-केतु का भ्रमण काल डेढ़ वर्ष होता है ।।
शनि का भ्रमण काल ढाई वर्ष होता है ।।

सभी ग्रह उपरोक्त समयानुसार एक राशि में रहते हैं । बाद में अपनी राशि-परिवर्तन करते हैं ।

१.सूर्य - सूर्य जन्मकालीन राशि से 3, 6, 10 और 11वें भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

२.चंद्र - चंद्र जन्मकालीन राशि से 1, 3, 6, 7, 10 व 11 भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

३.मंगल - मंगल जन्मकालीन राशि से 3,  6, 11 भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

४.बुध - बुध जन्मकालीन राशि से 2, 4, 6, 8, 10 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

५.गुरु - गुरु जन्मकालीन राशि से 2, 5, 7, 9 और 11 वें भाव में शुभ फल देता है। बाकी भावों में अशुभ फल देता है।

६.शुक्र - शुक्र जन्मकालीन राशि से 1, 2, 3, 4, 5, 8, 9, 11 और 12 वें भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल ही देता है ।।

७.शनि - शनि जन्मकालीन राशि से 3, 6, 11 भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

८.राहु - राहु जन्मकालीन राशि से 3, 6, 11 भाव में शुभ फल देता है । बाकी भावों में अशुभ फल देता है ।।

९.केतु - केतु जन्मकालीन राशि से 1, 2, 3, 4, 5, 7, 9, और 11 वें भाव में शुभ फल देता है । बाकी सभी भावों में अशुभ फल ही देता है ।।

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।। नारायण नारायण ।।

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