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श्राद्ध करने से दु:खों, तकलीफों, कष्टों तथा अपनी दरिद्रता से मुक्ति ।।



श्राद्धपक्ष में श्राद्ध करने से अपने दु:खों, तकलीफों, कष्टों तथा अपनी दरिद्रता से मुक्ति एवं अपने पितरों की मुक्ति का सहज मार्ग माना गया है ।। to get rid all of suffering to Shraddh.


हैल्लो फ्रेण्ड्सzzz,



मित्रों, 
पितृ पक्ष शुरू हो गया है, यानी पितरों को प्रसन्न करने का पखवाड़ा । अगले 15 दिनों तक पितर लोग यमलोक से आकर पृथ्वीलोक पर वास करेंगे । देश भर में मुख्य रूप से तीन स्थान ऐसे हैं, जहां श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है ।।

मित्रों, कहा जाता है कि "गयाजी" में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था । परन्तु अब सुनने को मिलता है, कि इनमें से सिर्फ 48 ही बची है । इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं । यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है । इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए मुख्य माना गया है ।।


"गयाजी" के बाद "हरिद्वार" को भी पिंडदान के लिए सबसे महात्वपूर्ण माना जाता है । हरिद्वार में जहाँ नारायणी शिला मंदिर और कुशावर्त घाट पर लोग पितरों की मुक्ति के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं । हिन्दू संस्कृति में श्राद्ध का खास महत्व है, माना जाता है कि अपने पित्तरों का श्राद्ध करने से पितर तृप्त हो जाते हैं । पितरों के प्रसन्न रहने से घर में सुख शांति, धन संपदा और समृद्धि आती है । यही वजह है कि हरिद्वार में नारायणी शिला मंदिर और कुशावर्त घाट पर श्राद्ध पक्ष में देशभर से बड़ी संख्या में लोग आते है ।।


हमारे वैदिक मान्यता और परम्परा के अनुसार पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक होता है, जब वह अपने जीवित माता-पिता की सेवा करें और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी पर और पितृपक्ष में उनका विधिवत श्राद्ध करें । शास्त्रों के अनुसार किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है । प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है । पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलाकृत्ति वाले भोज्य पदार्थ को पिंड कहते हैं ।।


मित्रों, जब सूर्य कन्या राशि में आता है तब श्राद्ध पक्ष शुरू होता है । इस समय में पितृलोक पृथ्वी के सबसे करीब होता है । यह ग्रह योग आश्विन कृष्ण पक्ष में बनता है । इसीलिए पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण हमारे पितर हमारे घरों तक पहुंच पाते है । भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन की अमावस्या तक हमारे वैदिक पंरपरा के अनुसार श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है । मान्यता है कि पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करके कुशाघाट और नारायणी शिला पर पिंडदान और तर्पण करने से पितरों के आत्मा को शांति मिलती है । चावल के आटे को पिंड तथा काले तिल और जौ को पिंड और तर्पण में मुख्य रूप से इस्तेमाल किया जाता है ।।


पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज ये श्राद्ध के मुख्य कर्म माने जाते हैं । श्राद्ध कर्म दक्षिण की ओर मुख करके किया जाता है । आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बनाये हुए पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान (श्राद्ध) कहा जाता है । जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है ।।


पिंडदान और तर्पण करते समय दाहिने हाथ के अंगूठे और तर्जनी अंगुली के बीच के स्थान से जलांजलि दी जाती है । पितृ पक्ष में पितरों का श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करने से भगवान नारायण प्रसन्न होते है । नारायण की कृपा प्राप्त करने का भी ये मुख्य अवसर होता है । भगवान नारायण को सबसे पहला पितर माना गया है । नारायण के साथ ही अपने पूर्वजों को भी याद करना ही श्राद्ध कहा जाता है । श्राद्ध करने से पितर तो प्रसन्न होते ही हैं और उनकी प्रशन्नता से घर में आती है सुख और शांति के साथ ही सम्पन्नता और वैभव भी ।।


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।।। नारायण नारायण ।।।

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