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सूतक का दोष क्या है, क्यों लगता है और कितने समय तक रहता है ।।

सूतक का दोष क्या है, क्यों लगता है और कितने समय तक रहता है ।। Janana And Marana Sutak Ka Nirnaya.
 Hanuman Ji.

हैल्लो फ्रेण्ड्सzzz,


मित्रों, शास्त्रीय प्रमाण के अनुसार सूतक कितने प्रकार का होता है तथा किस प्रकार से हमारे ऊपर दु:ष्प्रभाव डालता है ? सूतक का तात्पर्य है अशौच या अशुद्धि । सूतक से शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की अशुद्धियाँ होती है । शरीर का सूतक द्रव्य और क्षेत्र के कारण तथा मन राग-द्वेषादी विकारी परिणाम से अशुद्ध होता है इसलिए इस काल में शुभ कार्य करना वर्जित है ।।


क्योंकि एक व्यक्ति कि अशुद्धि से कई व्यक्ति और सम्पूर्ण वातावरण भी प्रभावित हो सकता है । जैसे एक बूंद नींबू के रस से पुरे दूध का स्वरुप परिवर्तित हो जाता है । सूतक भेद के अनुसार पहला है आर्तज अर्थात मृत्यु सम्बन्धी, दूसरा है सौतिक अर्थात प्रसूति सम्बन्धी और तीसरा आर्तव अर्थात ऋतुकाल सम्बन्धी । तत्सन्सर्गज अर्थात सूतक से अशुद्ध व्यक्ति के स्पर्श से भी दोष लगता है ।।


मित्रों, आर्तज अर्थात मृत्यु सम्बन्धी सुतक कैसे और किसके मरण से होता है । जैसे घर में रहने वाले सदस्यों जैसे कुटुम्बी, सेवक और पालतू जानवर के मृत्यु से भी सूतक लगता है । इनके मृत्यु से हुई अशुद्धि को आर्तज सूतक कहते है । अब इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला सामान्य मृत्यु अर्थात आयु पूर्ण करके मृत्यु को प्राप्त होना ।।


दूसरा अपमृत्यु अर्थात दुर्भाग्य से जैसे प्राकृतिक आपदा, बाढ़, अग्नि, भूकंप, उल्कापात, बिजली आदि से, सर्पदंश, सिंह, युद्ध एवं दुर्घटना आदि के कारण हुई मृत्यु को अपमृत्यु कहते है । तीसरा आत्मघात से हुई मृत्यु जैसे सती होना, क्रोध वश कुएँ में गिरकर, नदी-तालाब में डूबकर मरना, छत से गिरना, विष खाना, फांसी लगाना, आग लगाना, गर्भपात आदि करवाना आत्महत्या की श्रेणी में ही आता है ।।


मित्रों, इन्ही कारणों से किसी दूसरों के प्राणों का हनन करना हत्या होता है परन्तु ये भी आत्महत्या से हुई मृत्यु की श्रेणी में ही आता है । इसके बाद आता है दूसरा सौतिक सूतक अर्थात प्रसूति सम्बन्धी सूतक । एक घर में रहने वाले सदस्यों कि प्रसूति होने से हुई अशुद्धि को सौतिक सूतक कहते है । इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला स्राव सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से तीन-चार माह तक के गर्भ गिरने को स्राव कहते है ।।


दूसरा पात सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से पांच-छ: मास तक के गर्भ गिरने को गर्भ पात कहते है । तीसरा प्रसूति सम्बन्धी सूतक अर्थात गर्भ धारण से सातवें से दशवें मास में माता के उदर से शिशु के बहार आने को प्रसूति या जन्म कहते है । अब तीसरा सूतक आर्तव अर्थात ऋतुकाल सम्बन्धी सूतक कहा जाता है । सामान्यत: बारह वर्ष से पचास वर्ष तक स्त्रियों का प्रत्येक माह में रक्त स्राव होता है ।।


मित्रों, इससे होने वाली अशुद्धि को आर्तव सूतक कहते है । इसे रजो दर्शन, रजो धर्म, मासिक धर्म भी कहते है । इस अवस्था में स्त्री को रजस्वला कहा जाता है, इसके भी २ भेद होते हैं । पहला प्राकृतिक स्राव अर्थात नियमित रूप से निश्चित तिथियों में होने वाला रक्तस्राव जो तीन दिन तक होता है उसे प्राकृतिक स्राव कहा जाता है । दूसरा स्त्रियों को रोगादिक विकार से नियमित काल के पहले रक्त स्राव होना या नियमित काल के बाद रक्त स्राव होना ।।


इस प्रकार अन्य कारणों से असमय में होने वाला रक्त स्राव विकृत स्राव कहलाता है । चौथा होता है तत्सन्सर्गज सूतक अर्थात अशुद्ध व्यक्ति के स्पर्श से जैसे उनका स्पर्श, उठना, बैठना, भोजन करना, शयन करना आदि से होने वाली अशुद्धि तत्सन्सर्गज सूतक कहलाती है । इसके भी तीन भेद होते हैं, पहला मृत व्यक्ति के स्पर्श से सूतक हो जाता है ।।


मित्रों, शमशान भूमि में अर्थी ले जाने से, साथ में जाने से, श्मशान भूमि में जाने वाले व्यक्ति के स्पर्श से एवं मरण सूतक से अशुद्ध व्यक्तियों के संसर्ग से होने वाली अशुद्धि । दूसरा प्रसूता स्त्री और बालक के स्पर्श से और प्रसूता स्त्री द्वारा उपयोग कि गयी वस्तु का स्पर्श प्रसूति सूतक से अशुद्ध व्यक्तियों का संसर्ग करने से होने वाली अशुद्धि । तीसरा रजस्वला स्त्री का स्पर्श या उसके द्वारा उपयोग की गयी वस्तु को स्पर्श करने से होने वाली अशुद्धि ।।


इस प्रकार इतने कारणों से सूतक लगती है, परन्तु अशुद्धि का काल कितना होगा इसके बारे में विभिन्न शास्त्रों, आचार्यों, विद्वानों एवं लोक परंपरा के अनुसार मत-मतान्तर है जो अपने क्षेत्र की परम्परानुसार मानना चाहिए । सूतक वृद्धि एवं हानि से युक्त होता है, यह जन्म सम्बन्धी दस दिन तथा मरण सम्बन्धी बारह दिन का होता है ।।


मित्रों, प्रसूति स्थान की शुद्धि सूतक काल से लेकर एक मास में होती है जबकि गोत्रीजन की शुद्धि सूतक काल के बाद स्नान मात्र से हो जाती है । कुटुम्बीजनों की सूतक से शुद्धि १२ दिन बाद होती है । इसके बाद ही वो भगवान का अभिषेक, पूजन तथा पात्रदान आदि कर सकते है । प्रसूता स्त्री ४५ दिन में शुद्ध मानी जाती है, रजस्वला तीन दिन बाद शुद्ध होती है परन्तु धार्मिक कार्य हेतु पांचवे दिन के बाद ही शुद्ध मानी जाती है ।।


परन्तु शास्त्र कहता है, कि पर पुरुष के साथ व्यभिचार रत स्त्री जीवन पर्यन्त शुद्ध नहीं मानी जाती है । मित्रों, उपरोक्त अशुद्धि काल की सामान्य स्थिति है परन्तु सूतक किस-किस को लगेगा कितनी पीढ़ी तक लगेगा, कितने दिन तक लगेगा । इसके बारे में परम्परानुसार ग्रंथों में जो उल्लेख मिलता है उनमें कुछ भेद है । जिसका पालन लोकरीति के अनुसार करना चाहिए ।।


मित्रों, कुटुम्बी जन अर्थात ३ पीढ़ी तक के बंधुओं को मृत्यु एवं प्रसूति का सूतक कमश: १२ दिन एवं १० दिन ही लगता है । चौथी से दशवी पीढ़ी तक यह सूतक १-१ दिन कम होता जाता है और दशवीं पीढ़ी का सूतक मात्र स्नान से ही निवृत्त हो जाता है । अब थोड़ी सी बात कर लेते हैं, कि ये सूतक आखिर लगता ही क्यों है ? किसी भी प्राणी की जब मृत्यु होती है, तब वह भय एवं पीड़ा से आतंकित होता है ।।


अति पीड़ा के इन क्षणों में शरीर की स्थिति अति उत्तेजित होती है । जिस से मस्तिष्क, ह्रदय, नाडी तंत्र प्रभावित होता है । इस प्रक्रिया में विकारी तत्व प्रभावित होने के साथ पसीना एवं मल मूत्र भी निष्काषित होता है । इस प्रक्रिया में कई विकारी तत्व रॊग के कीटाणु भी शरीर से उत्सर्जित होते है । आभा मंडल विकृत होने के साथ वायोप्लाज्मा "organic Chemical" के कारण विकृत हो जाता है ।।


मित्रों, प्राणांत के बाद व्यक्ति के मरण स्थान पर बायोप्लाज्मा विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा के रूप में विद्यमान रहता है । जिसका अपघटन तीन दिन में होता है, इसलिए तीन दिन की विशेष अशुद्धि मानी गयी है । मृत शरीर में असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते है जिनका नाश शव जलने से होता है । अत: यह विशेष हिंसा का कारण माना गया है । इसलिए यह सूतक देहांत के बाद से १२ दिन तक माना गया है ।।


यही स्थिति प्रसूति के समय माता की होती है । प्रसव के समय उनकी मानसिक स्थिति विकृत हो जाती है । आर्त-रौद्र स्थितियों से नकारात्मक उर्जा उत्पन्न होती है । प्रसव के समय शारीरिक उत्तेजना से विकारी पदार्थ पसीने के साथ उत्सर्जित होते है । विकृत आभा मंडल की विद्युत् चुम्बकीय ऊर्जा अपघटित होने में तीन दिन लगते है । अत: सौरी "प्रसव स्थल" का कार्यकाल तीन दिन का माना गया है ।।


आयुर्वेद के अनुसार प्रसव के समय झिल्ली तथा नाल के कुछ अवयव गर्भाशय में अशुद्धि के रूप में रह जाते है । जो दोषमुक्त रक्त स्राव के साथ तीन दिन तक बाहर निकलते रहते है । इसके बाद गर्भाशय के स्राव का वर्ण कुछ पीलापन लिए होता है जो गर्भाशय के दोष के रूप में दस दिन तक रिसता है । इस दोष को रजस्वला के रक्तस्राव के सामान ही अशुद्ध माना गया है ।।


जिस प्रकार रजस्वला स्त्री तीसरे दिन के बाद चौथे दिन शुद्ध होती है, उसी प्रकार प्रसूता ग्यारहवें दिन शुद्ध होती है । इसके बाद गर्भाशय को पूर्व स्थिति में आने में छ: सप्ताह का समय लगता है । इसलिए प्रसूता की प्रसूता अवस्था आयुर्वेद के साथ साथ एलोपैथी भी छ: सप्ताह मानता है ।।


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